*हकीकत ये है कि...*
राजस्व विवाद निपटाने के लिए सरकार ने तहसील दिवस, थाना समाधान दिवस जैसे मंच बनाए थे। मगर सच्चाई ये है कि मौके पर पहुंचकर हल कराने की बजाय अधिकारी कुर्सी से चिपके रहते हैं। फरियादी फाइल लेकर चक्कर काटते रह जाते हैं और विवाद जड़ पकड़ता जाता है।आलम ये है कि हर तीसरी आपराधिक घटना कहीं न कहीं जमीन के झगड़े से जुड़ी है। भूमिधरी खेतों पर अवैध कब्जा, बंटवारे को लेकर खून-खराबा, रास्ते के लिए लाठी-डंडे—ये अब आम बात हो गई है।
*खुलेआम उगाही और घूसखोरी*
राजस्व महकमे की हालत ये है कि सीमांकन के लिए किसान महीनों कोर्ट में धारा 24 के तहत दावा करते हैं, हजारों रुपए ट्रेजरी में जमा कराते हैं। मगर उसके बाद कभी पुलिस नहीं मिलती तो कभी लेखपाल गायब। जो मिल भी गया तो सीधे मुंह बात नहीं, घूमा-फिराकर रुपए की डिमांड। रुपये मिलते ही साहब के बोल बदल जाते हैं—‘अब हो जाएगा’।
*सैदापुर का तालाब की कहानी*
सैदापुर प्रधान तालाब पर अतिक्रमण हटवाने के लिए दस साल से दफ्तरों के चक्कर लगा रहा है। 907 गाटे की जमीन पर कब्जा जस का तस। जबकि कब्जा धारक के ऊपर तहसीलदार के यहां मुकदमा भी किया गया है और जिम्मेदार द्वारा केवल तारीख पर तारीख दी जा रही है निस्तारण नहीं हो पा रहा है आगे बारिश का सीजन आ चुका है जिससे ग्रामीणों को जल निकासी की भी समस्या उत्पन्न होगी रास्ते भी बाधित होंगे बारिश का पानी नाले में भरा हुआ है बीमारियां भी उत्पन्न होगी फिर भी इस मामले को जिम्मेदारों द्वारा गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है, भूतपूर्व प्रधान तथा वर्तमान प्रधान द्वारा लगातार तालाब को कब्जा मुक्त करवाने के लिए अथक प्रयास किया गया परंतु आदेश पर आदेश केवल अधिकारी लिखते रहे निष्कर्ष कुछ नहीं निकला—फिर भी अफसरों की फाइलें जागीं तो कच्छप गति से!
*जनप्रतिनिधि भी लाचार, जनता किससे बोले?*
जब प्रधान की बात नहीं सुनी जा रही तो आम ग्रामीण का क्या होगा? सवाल यही है। अगर वक़्त रहते नापतोल और अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई हो जाए तो लाठी-डंडा, खून-खराबा बचे—मगर किसे पड़ी है?
कुल मिलाकर—राजस्व महकमे में हर पैमाइश से पहले जेब की पैमाइश जरूरी है। वरना खेत खून मांगते रहेंगे, और फाइलें धूल फांकती रहेंगी।