देवल संवादाता,वाराणसी |कला, संस्कृति और अध्यात्म की नगरी काशी में परंपराएं कदम-कदम पर निभाई जाती हैं। बिना शिव और शक्ति के काशी में न तो कोई महापर्व का श्रीगणेश होता है और न ही समापन। काशीवासी भगवान शिव से रंगभरी एकादशी पर होली के हुड़दंग की अनुमति लेते हैं और होलिका दहन के बाद चौसठ्ठी देवी को गुलाल अर्पित करते हैं। ये परंपरा काशी में ही निभाई जाती है। काशी विद्वत कर्मकांड परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष आचार्य अशोक द्विवेदी ने बताया कि काशी की तरह ही यहां की होलिकाओं का इतिहास भी पुराना हैं। होलिका दहन के बाद चौसठ्ठी देवी को गुलाल अर्पित करने की परंपरा प्राचीन काल से निभाई जा रही है। होलिकाएं गंगा घाट, वरुणा संगम, अस्सी संगम और गंगा गोमती संगम पर आज भी उसी अंदाज में जलाई जाती हैं।
काशी की सबसे प्राचीन होलिका शीतलाघाट और कचौड़ी गली की होलिका का इतिहास 14वीं शताब्दी से मिलता है। प्राचीनता की बात करें तो काशी की पहली होलिका शीतला घाट पर ही जलाई जाती है। ये परंपरा आज तक कायम है।
ढुंढिराज गणेश की होलिका में अन्न को भी अर्पित करने की परंपरा है। यहां लकड़ी और कंडे के साथ नौ तरह के अन्न अर्पित किए जाते हैं। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर तो शवदाह से बची हुई वस्तुओं से होलिका तैयार होती है। भदैनी की होलिका का इतिहास काशी में पेशवाओं के आने से पहले का मिलता है।