शिवांश, देवल, ब्यूरो, गाज़ीपुर।मा0 श्री सोहन लाल श्रीमाली, उपाध्यक्ष (उपमंत्री स्तर) राज्य पिछड़ा वर्ग अयोग उ0प्र0 द्वारा जिला पंचायत सभागार गाजीपुर में अहित्याबाई होल्कर शताब्दी समारोह कार्यक्रम के दौरान प्रेस मीडिया प्रतिनिधियों के साथ प्रेसवार्ता की गयी। प्रेसवार्ता के दौरान उन्होने बताया कि पुण्यश्लोका अहिल्याबाई होल्कर जी का जीवन शौर्य, साधना, सेवा, समर्पण, संयम और सादगी का अप्रतिम उदाहरण है। उनकी अद्वितीय शासन कला, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धार्मिक आस्था ने एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जो हम सभी के लिए आज भी प्रेरणादायी है। आज राजमाता अहिल्याबाई की जयंती के 300 वर्ष के पावन अवसर पर उन्हें श्रद्धा पूर्वक नमन करते हुए हमें यह शुभ अवसर प्राप्त हुआ है कि हम उनके महान व्यक्तित्व का स्मरण करते हुए उनसे प्रेरणा लें।
राजमाता अहिल्याबाई होल्कर एक अद्वितीय व्यक्तित्व की धनी महिला थीं जिन्होंने अपने शासनकाल में मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र को एक नई दिशा दिखाई। उनकी न्यायप्रियता, प्रशासनिक क्षमता और धार्मिक सहिष्णुता ने उन्हें एक आदर्श शासक बनाया।
राजमाता अहिल्याबाई का जन्म 31 मई, 1725 ई को अहमदनगर के चौंडी ग्राम में हुआ था। उनकी माता जी श्रीमती सुशीला तथा पिता माणको जी शिंदे थे। राजमाता अहिल्याबाई ने ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले एक सामान्य परिवार की बालिका से एक असाधारण शासक तक की यात्रा पूरी की। उनका विवाह मल्हार राव होलकर के पुत्र खंडेराव होलकर से हुआ था। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने राज्य की बागडोर संभाली और मालवा क्षेत्र को समृद्धि और सुरक्षा प्रदान की।
राजमाता अहिल्याबाई को लोकमाता और पुण्यश्लोका के रूप में ख्याति प्राप्त है। शिव की अनन्य भक्त अहिल्याबाई का लोक कल्याणकारी शासन भूमिहीन किसानों, भीलों जैसे जनजातीय समूहों तथा विधवाओं के हितों की रक्षा करने वाला एक आदर्श शासन था। समाज सुधार, कृषि सुधार, जल प्रबंधन, पर्यावरण रक्षा, जनकल्याण और शिक्षा के प्रति समर्पित होने के साथ-साथ उनका शासन न्याय प्रेमी था। समाज के सभी वर्गों का सम्मान, सुरक्षा, प्रगति के अवसर देने वाली समरसता की दृष्टि उनके प्रशासन का आधार थी। इन्हीं लोक कल्याणकारी कार्यों के कारण उन्हें लोकमाता कहा गया।
इसी के साथ न केवल अपने राज्य में अपितु संपूर्ण देश के मंदिरों की पूजा व्यवस्था और उनके आर्थिक प्रबंधन पर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया। बद्रीनाथ से रामेश्वरम तक और द्वारिका से लेकर पूर्व पुरी तक आक्रमणकारियों द्वारा क्षतिग्रस्त मंदिरों का उन्होंने पुनर्निर्माण कराया। प्राचीन काल से चलती आई और आक्रमण काल में खंडित हुई तीर्थ यात्राओं में उनके प्रयासों से नवीन चेतना आई। इन वृहद कार्यों के कारण ही उन्हें पुण्यश्लोका की उपाधि मिली। संपूर्ण भारतवर्ष में फैले हुए इन पवित्र स्थानों का विकास वास्तव में उनकी राष्ट्रीय दृष्टि का परिचायक है।
राजमाता अहिल्याबाई अत्यंत दूरदर्शी प्रशासिका थी। उन्होंने एक ऐसा सूचना तंत्र विकसित किया जिसके माध्यम से उन्हें संपूर्ण देश की जानकारी प्राप्त होती रहती थी। उन्होंने अपनी स्वयं की डाक व्यवस्था विकसित की जिसमें अत्यंत द्रुत गति से सूचना अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचती थी तथा गोपनीयता के भंग होने की संभावना भी अत्यंत कम रहती थी। राजमाता अहिल्या हृदय से जितनी उदार थीं उतनी ही कठोर प्रशासिका भी थीं।
एक प्रभावशाली शासक होने के साथ-साथ वह एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। उनका विश्वास अनावश्यक युद्ध में कभी नहीं रहा लेकिन उनके राज्य पर कुदृष्टि रखने वालों से निपटने में वह पूर्ण रूप से सक्षम थी। अपनी बुद्धिमत्ता एवं साहस से इस वीरांगना ने अपने राज्य का कुशल प्रशासन किया। जब उन्होंने शासन व्यवस्था संभाली तब पूरी सेना के पास मात्र तीन बंदूकें हुआ करती थीं परंतु उन्होंने स्वयं अपने शास्त्रागरों का निर्माण प्रारंभ कर दिया तथा तोप खानों की स्थापना की। उन्होंने 500 महिलाओं की एक सैनिक टुकड़ी का भी गठन किया तथा उन्हें युद्ध में प्रशिक्षित किया। गोला बारूद व रसद संग्रह का कार्य भी उन्होंने महिला सेनानियों के जिम्मे कर दिया।
शैक्षिक एवं आर्थिक मामलों में भी वह एक दूर दृष्टि रखने वाली निर्णयक्षमता संपन्न महिला थीं। उन्होंने व्यापार को बढ़ावा दिया। नए उद्योगों, खेती और व्यापार के लिए विशेष प्रयास किया। विश्व प्रसिद्ध महेश्वरी साड़ियां उनके ही प्रयासों का प्रतिफल हैं। राजमाता अहिल्याबाई ने ही 1756 में वाराणसी से बुलाकर मालवा के महेश्वर नामक स्थान में मालू समाज को बुनकर के रूप में बसाया था। यह साड़ियां स्वयं सहायता समूहों के द्वारा स्वावलंबन का एक सफल प्रयोग था। उन्होंने वीरगति प्राप्त सैनिकों की पत्नियों के लिए स्वयं सहायता समूह बनवाए थे जिन्हें वह अपने निजी कोष से सस्ते ऋण भी दिया करती थीं। आपदा के समय वे प्रजा को कर में छूट देती थीं तथा उन्होंने प्रजा की आसानी के लिए किस्तों में कर देने का प्रावधान किया। राजमाता अहिल्याबाई यह जानती थीं कि राज्य की सुख समृद्धि तथा स्वावलंबन का मूल आधार शिक्षा व कौशल है। राज्य में स्त्री एवं पुरुष सभी को शिक्षा समान रूप से मिले इसलिए गुरुकुलों के सुचारु सन्चालन की भी पर्याप्त व्यवस्था की गई।
महिला सशक्तिकरण तथा प्रकृति संरक्षण की दिशा में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। वे महिलाओं के अधिकारों को लेकर अत्यंत सजग थीं। उनके दरबार में महिलाओं को आने की पूरी स्वतंत्रता थी। अपने शासनकाल में उन्होंने विधवाओं को संपत्ति रखने तथा उसके उपयोग का अधिकार दिया तथा स्त्रियों को अपना मनचाहा दत्तक या उत्तराधिकारी चुनने का भी अधिकार दिया। वह प्रकृति की भी संरक्षिका थीं। जीव जंतुओं पशु पक्षियों के प्रति भी उनके मन में विशेष लगाव था। गौ सेवा के लिए राजमाता अहिल्याबाई ने महती कार्य किया तथा उन्होंने गोवध बंदी कानून को कठोरता से लागू किया। उन्होंने वन संपदा को अनावश्यक काटने पर दंड का विधान किया तथा नदियों का प्रदूषण रोकने और नर्मदा के संरक्षण हेतु विशेष प्रयास किए।
सनातन संस्कृति से अगाध प्रेम करने वाली पुण्य श्लोका राजमाता अहिल्याबाई का दृष्टिकोण अखिल भारतीय था। वह भारत की एकात्मता में तीर्थ यात्राओं के महत्व को समझती थीं। उन्होंने गंभीरता से विचार किया कि भारत में युगों-युगों से चली आ रही तीर्थ यात्राओं की परंपरा विदेशी शासकों के कारण टूट गई थी। तीर्थ स्थानों के मार्ग, मंदिर, अन्य क्षेत्र, पेयजल व्यवस्था, धर्मशालाएं इत्यादि विदेशी आक्रांताओं ने ध्वस्त कर दी थीं। इनके पुनर्निर्माण किए बिना तीर्थ यात्राएं सुगम नहीं हो सकती थीं। इसीलिए उन्होंने पूरे भारत में एक दृष्टि से निर्माण करवाए। वाराणसी में मणिकर्णिका घाट अहिल्या माता के द्वारा ही बनवाया गया था। बद्रीनाथ से रामेश्वरम और द्वारिका से काशी तक उन्होंने अनेक घाट, धर्मशालाएं, मंदिर इत्यादि बनवाए। काशी से बंगाल तक सड़क को पक्का करवाया। कई भग्न मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया। राजमाता अहिल्या ने राजनीतिक और भौगोलिक सीमाओं को लांघ कर भी पूर्ण शांति और सहमति के साथ अनेक निर्माण कार्य करवाए। भारत में लगभग 80 से 100 ऐसे ज्ञात स्थान है जहां पर राजमाता अहिल्या द्वारा भवनों का निर्माण करवाया गया। यह भारत को जोड़ने की दिशा में उनकी ओर से किया गया महत्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने न केवल स्थापत्य का कार्य करवाया बल्कि भविष्य में भी सुचारू रूप से कार्य चलता रहे इसके लिए अग्रिम व्यवस्था कर दी। उनके द्वारा कराए गए निर्माण कार्य वास्तव में अंग्रेजों के षड्यंत्र के विरुद्ध हिंदू एकत्रीकरण के प्रयास भी थे। वह जानती थीं कि मंदिर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र होते हैं। उनके इन प्रयासों से समाज में बड़े परिवर्तनों को गति मिली। राजमाता अहिल्याबाई होलकर का जीवन इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि उन्होंने व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं और यहाँ तक कि गहरे निजी दुखों को भी परे रखकर, अपने संपूर्ण जीवनकाल में सदैव प्रजा के कल्याण और लोकहित को सर्वाेपरि प्राथमिकता दी। यद्यपि राजमाता अहिल्याबाई का व्यक्तिगत जीवन सरल और सुखद नहीं था और उन्होंने अपने परिवार के कई सदस्यों का आकस्मिक निधन देखा था, जिसमें उनका 22 वर्षीय पुत्र मालेराव, पति खंडेराव होल्कर और, पौत्र नत्थोवा होल्कर भी थे, फिर भी माता अहिल्याबाई ने अपने हृदय को विचलित नहीं होने दिया, और अपने कर्तव्य के निर्वहन में 26 वर्ष तक अपने राज्य का संचालन और लोक कल्याण किया। आज राजमाता अहिल्याबाई की 300वीं जयंती के अवसर पर हम उनके इन्हीं गुणों को अपने जीवन में उतारकर विकसित भारत के संकल्प को साकार करने हेतु एक नई ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। आज की युवा पीढ़ी को पुण्यश्लोका राजमाता अहिल्याबाई के बारे में अवश्य जानना चाहिए जिससे वह अपने जीवन को राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के पवित्र कार्य में प्रतिबद्धता पूर्वक लगा सकें। कार्यक्रम में सदस्य विधान परिषद विशाल सिंह चंचल, जिला पंचायत सदस्य सपना सिंह, ब्लाक प्रमुख बिरनों राजन सिंह, जिलाध्यक्ष भाजपा ओमप्रकाश राय, पूर्व जिलाध्यक्ष भाजपा भानू प्रताप सिंह, मीडिया प्रभारी शशिकान्त शर्मा, स्वयं सहायता समूह की महिलायें, प्रेस मीडिया प्रतिनिधि उपस्थित रहें।