ब्रिटिश हुकूमत ने 1864-65 में तत्कालीन जमींदारों को शहर में नजूल की जमीन आवंटित की थी, लेकिन यह शर्त रखी गई कि पट्टे की जमीनों पर जमींदारों के सरकारी बंगले बनाए जाएंगे और डीएम को शपथ पत्र देकर इसे अधिकारियों को किराए पर देना था। 1886-87 में बीएनडब्ल्यू रेलवे कंपनी के अधिकारियों को शहर में बने 20 बंगले किराए पर दिए गए।बाद में इन्हीं बंगलों पर नजूल का दावा कर लोगों ने कब्जा या फ्री होल्ड करवा लिया। अब इन जमीनों पर स्कूल-कॉलेज, होटल और क्लब बन गए हैं। इसमें कई मामले न्यायालयों में लंबित हैं।नजूल नीति आने के बाद रेवेन्यू में जिल्द बंदोबस्त की तत्कालीन खतौनी से मिलान करते हुए नियमानुसार इन जमीनों की खतौनी का पुर्ननिर्माण कर सरकार अपनी जमीनों को वापस ले सकती है।रेवेन्यू रिकाॅर्ड के नक्शे के अनुसार, तत्कालीन समय की अराजी छावनी (गोलघर-सिविल लाइंस) में शहर के बाबू मथुरा दास, गप्पू लाल, अंत प्रसाद, कीरथ चंद, जाहिद अली, असगर अली, भगवती प्रसाद के साथ कुछ जमींदार और थे। इन्होंने अपनी लीज की जमीनों पर कुल 20 बंगले बनाए थे।उस वक्त बीएनडब्ल्यू रेलवे कंपनी का मुख्यालय गोरखपुर था। इन बंगलों में तत्कालीन रेलवे कंपनी के अधिकारी रहते थे। जानकार बताते हैं, यहां के आसपास का इलाका जंगल का था, जिस वजह से अधिकारियों को जंगल में शिकार करने में बेहद सुविधा होती थी।उदाहरण के तौर पर 1915 के आस-पास महाराजगंज के चौक क्षेत्र में जंगल के बीच में 22 किलोमीटर लंबी रेल लाइन थी। अधिकारी जंगल के बीच इन लाइनों के चारों तरफ शिकार के लिए भी जाते थे।वरिष्ठ अधिवक्ता राजेश खुल्लर बताते हैं- 1982 तक महाराजगंज, गोरखपुर जिले की ही तहसील हुआ करती थी। ऐसे में अधिकारियों को मुख्यालय के पास बंगलों में रहना पसंद आता था। राजस्व विभाग के सूत्रों ने बताया कि तत्कालीन समय में इन बंगलों को काटकर हाउसेस कर दिए गए और सरकारी कर्मचारियों को दिए जाने के लिए निर्देशित किया गया।इस दौरान लोगों ने इन बंगले, हाउसेस और परती जमीनों (स्वामित्व वाली) की लीज के कागजों को रेवेन्यू रिकाॅर्ड में अपने दस्तावेजों और सांठगांठ से अपने नाम चढ़ाते चले गए और काबिज होते गए। ऐसे ही धीरे-धीरे नजूल की जमीनों पर होटल, स्कूल-कॉलेज, बाजार बनते चले गए।हालांकि, आजादी के बाद कांग्रेस सरकार में तत्कालीन सत्ताधारी लोगों ने भी इन बंगलों और हाउसेस में अपने नाम चढ़वा लिए थे। लेकिन, 1864 के जिल्द बंदोबस्त रिकाॅर्ड के अनुसार अपने नाम और नजूल की सीलिंग जमीन पर अपने नाम को नहीं चढ़वाया। तत्कालीन समय के रिकाॅर्ड जिनके पास हैं, वे वर्तमान समय में नजूल और परती जमीनों के फर्जी नजूल के खिलाफ वर्तमान समय में कोर्ट में केस लड़ रहे हैं।दीवानी कचहरी के वरिष्ठ अधिवक्ता धर्मवीर सिंह के मुताबिक, काली मंदिर के सामने बंगला नंबर एक था। फिर, गणेश चौराहे से लेकर विश्वविद्यालय चौराहा तक बंगला नंबर 2,3,4,5,6 और सात थे। इसके बाद बंगला नंबर आठ बाल बिहार, गोलघर के पास, बंगला नंबर 10 डीएम चौराहे के पास (अब कॉलोनी), बंगला नंबर 11 हरिओम नगर के पास, बंगला नंबर 12 और 13 टाउनहाल चौराहे से सिविल लाइंस, 14 गोलघर काली मंदिर के पहले, पुलिस लाइन इलाके से कार्मल स्कूल तक 15, 16, 17 और 18 बंगला बना था। इन्हीं बंगलों में कई बंगलों को बाद में काटकर हाउसेस (सरकारी बंगले और आवास, जो आज भी हैं) बना दिए गए। वर्तमान में बंगला नंबर 38 ए कमिश्नर ऑफिस के पास का हिस्सा है।जिला प्रशासन सरकार की मंशा के अनुसार जिल्द व्यवस्था को दुरूस्त करवाने में जुटा है। इसके अलावा वर्तमान में कौन सी नजूल जमीन लीज पर है और उसकी अवधि कब खत्म हो रही, ये भी जांचा जा रहा।एडीएम वित्त व राजस्व विनीत कुमार सिंह ने बताया कि जूल नीति-2024 का शासनादेश आने के बाद ही स्थिति स्पष्ट हो पाएगी, क्योंकि उसमें बिंदुवार दिशा-निर्देश दिए जाएंगे। नजूल की जमीन को लेकर सारे रिकॉर्ड एकत्र किए जा रहे हैं। जैसा शासन से निर्देश आएगा, कार्रवाई की जाएगी।